*मनुष्य और पशु के अन्योन्य सम्बन्धों की गाथा हैं केदार की कविताएँ*
अथवा
*मनुष्य मात्र से प्रेम करना सिखाती हैं केदार की कविताएँ*
अथवा
*पर्यावरण के प्रति बेहद सचेष्ट कवि हैं केदारनाथ सिंह*
रिपोर्टः डीकेपंडित गयाबिहार
बोधगया।
समकालीन हिन्दी कविता की कल्पना केदारनाथ सिंह के बिना नहीं की जा सकती। केदार जी की कविता आधुनिक समय मे सामान्य मनुष्य और जीव-जंतुओं के प्रति गहरी संवेदना की अभिव्यक्ति है। बहुत पहले, प्रेमचंद 1936 ई. के एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर कहते हैं - 'हम बहुत अधिक सोच चुके, अब और अधिक सोना मृत्यु का लक्षण है'। और निश्चित ही केदार की कविता जीवन की कविता है। ये बातें शनिवार को स्नातकोत्तर हिन्दी एवं मगही विभाग द्वारा आयोजित 'केदारनाथ सिंह के बहाने आधुनिक हिन्दी कविता पर एक संवाद' विषयक संगोष्ठी के मुख्य वक्ता विश्व-भारती, शांतिनिकेतन से आये प्रो. मुक्तेश्वरनाथ तिवारी ने कहीं।
दीप प्रज्ज्वलन और पुष्पार्चन से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। अंजलि ने सरस्वती वंदना एवं दिव्या ने स्वागत गीत की सुंदर प्रस्तुति दी। डॉ. अनुज कुमार तरुण ने मुख्य अतिथि का स्वागत पुष्पगुच्छ देकर किया। प्रो. सुनील कुमार ने अंगवस्त्र भेंट कर उनका अभिनन्दन किया। कार्यक्रम में मंच-संचालन डॉ. परम प्रकाश राय कर रहे थे।
अपने वक्तव्य में प्रो. मुक्तेश्वरनाथ तिवारी जी ने बताया कि रीतिकाल के मनुष्यों में नायक-नायिका कृष्ण और राधा थे आधुनिक दौर में सामान्य मनुष्य। महादेवी ने गाय, गिलहरी, बिल्ली जैसे जंतुओं पर लिखा। प्रेमचंद के नायक सामान्य से भी सामान्य मनुष्य रहे। प्रेमचंद, यशपाल, भीष्म साहनी जैसे कहानीकारों के यहां जब सामान्य मनुष्य केंद्र में आ रहा था तो हिन्दी कविता इससे दूर कैसे रह सकती थी। निराला ने 'भिक्षुक' और 'वह तोड़ती पत्थर' जैसी कविता लिखी। सौंदर्य के प्रतिमान बदलते चले गए।
प्रो. तिवारी ने केदार जी को उद्धृत किया - 'हमे जीना होगा, वधस्थल से लौटकर जीना होगा, भले ही मेरे शहर में बची हो साइकिल जितने हवा।' आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कभी लिखा था - 'कर्म का भी सौंदर्य होता है'। केदार जी की कविता में स्त्री अनाम है। उसमें नारी, महिला, वनिता शब्द नहीं मिलते क्योंकि वह अनाम भारतीय स्त्री के शोषण का बयान करना चाहते हैं। 'टमाटर बेचने वाली बुढ़िया' कविता पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनकी कविताओं में एक रोचकता है। इसलिए पठनीय है।
एक आंतरिक लय मिलती है विचारोत्तेजना के साथ।
आधुनिकता से प्रभावित कवि अपने समय पर कलम चलाएगा ही। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि साहित्य का लक्ष्य मनुष्य है। 'दीपदान' कविता में केदार जी ने लिखा - 'एक दिया वहां रखना जहां बर्तन मांजने से गड्ढा हो गया है/एक दिया वहां जबरा दिन-दिन भर सोता रहता है।' श्रम का सम्मान, बेजुबानों के प्रति गहरी सहानुभूति, नैसर्गिक सूक्ष्म निरीक्षण की अद्भुत प्रवृत्ति केदार जी की कविताओं की विशेषता है।
अध्यक्षीय उद्बोधन प्रस्तुत करते हुए हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर भरत सिंह ने कहा कि केदारनाथ जी की कविता के मार्फ़त सिर्फ़ आधुनिक नहीं, मध्यकालीन कविता के वस्तु-विधान पर भी बात की जा सकती है। आज जब कविता की माँग कम हो गई है, तब केदार के बहाने कविता की वैचारिकी को सहज रूप में प्रस्तुत कर श्रोताओं को प्रेरित कर पाना महत्त्वपूर्ण कार्य है।
मंचासीन अतिथियों का स्वागत एवं अभिनन्दन करते हुए अपने स्वागत वक्तव्य में वरिष्ठ आचार्य प्रो. सुनील कुमार ने कहा कि विश्व भारती पत्रिका में ज़माने से वे जुड़े रहे हैं और ऐसी प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक प्रो. तिवारी जी का मगध में आना सुखद है। बीएचयू में केदार जी की स्मृतियों को साझा करते हुए डॉ. राकेश कुमार रंजन ने आभार-ज्ञापन प्रस्तुत किया। डॉ. सोनू अन्नपूर्णा, डॉ. अम्बे कुमारी, डॉ. पिंटू कुमार की उपस्थिति के अलावा शोधार्थी सीमा सिन्हा, अतुल प्रकाश नीरज, धर्मेन्द्र कुमार, स्नातकोत्तर विद्यार्थीगण नीतीश, उत्पल, रितेश, अलोक, आकाश, शम्भू, ख़ुशबू, कर्मचारीगण परवेज़, मुन्ना, रोहित, धर्मेन्द्र, इंद्रजीत की भी कार्यक्रम में सक्रिय सहभागिता रही।