त्रिपिटक के खुद्दक निकाय के धम्मपद अट्ठकथा में एक बड़ा मार्मिक प्रसंग है।

नमस्कारः धम्म प्रभातः नमोबुध्दायः  

(अकिंचन का दान)

त्रिपिटक के खुद्दक निकाय के धम्मपद अट्ठकथा में एक बड़ा मार्मिक प्रसंग है।

यह प्रसंग भगवान काश्यप बुद्ध के समय का है, जिसे स्वयं भगवान गौतम बुद्ध सुनाते हैं ।

एक बार भगवान काश्यप बुद्ध क्षीणास्रव भिक्खुओं के विशाल संघ के साथ वाराणसी पधारे। जब तक भगवान वाराणसी में विहार करते रहे तब तक कुछ श्रद्धालु उपासक-उपासिकाओं ने संगठन बनाकर उत्साहपूर्वक बुद्ध प्रमुख पावन संघ के लिए महादान किया।

एक दिन महादान के उपरान्त अनुमोदन देशना में भगवान काश्यप बुद्ध ने बताया कि दानकर्ता चार प्रकार के  होते हैं:

1. एक, जो स्वयं तो दान करते हैं, लेकिन लोगों को दान के लिए प्रेरित या उत्साहित नहीं करते।

2. दूसरे, जो लोगों को दान के लिए प्रेरित व उत्साहित करते रहते हैं, लेकिन स्वयं दान नहीं करते।

3. तीसरे, जो न स्वयं दान करते हैं, न लोगों को दान के लिए प्रेरित या उत्साहित करते हैं।

4. चौथे, जो स्वयं भी दान करते हैं और लोगों को भी दान के लिए प्रेरित व उत्साहित करते हैं।

ये चार प्रकार के दानकर्ताओं को चार प्रकार का फल मिलता है:

1. जो स्वयं तो दान करते हैं, लेकिन लोगों को दान के लिए प्रेरित या उत्साहित नहीं करते, सोचते हैं कि लोगों को प्रेरित करने का क्या लाभ? ऐसे दानकर्ता स्वयं तो भोगसम्पत्ति, ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं, लेकिन उनको परिजन, परिवेश निर्धन मिलता है।

2. जो लोगों को दान के लिए प्रेरित व उत्साहित करते रहते हैं, लेकिन स्वयं दान नहीं करते। ऐसे व्यक्ति को परिजन, परिवेश सम्पन्न व समृद्ध मिलता है, लेकिन स्वयं भोगसम्पत्ति से वंचित रहता है।

3. जो न स्वयं दान करते हैं, न लोगों को दान के लिए प्रेरित या उत्साहित करते हैं, वो न स्वयं कुछ भोगैश्वर्य प्राप्त कर पाते हैं, न उसके परिवार को ही कुछ मिलता है। वह लोगों का उच्छिष्ट भोजन ही प्राप्त कर पाता है।

4. जो स्वयं भी दान करते हैं तथा लोगों को भी दान के लिए प्रेरित व उत्साहित करते हैं, वो वह स्वयं भी विपुल भोगसम्पत्ति पाते ही हैं, उसको अपना परिजन, परिवेश भी अटूट भोगेश्वर्यसम्पन्न मिलता है।

भगवान की धम्मदेशना सुन कर धम्मसभा में बैठे एक श्रद्धालु उपासक ने संकल्प लिया- मैं अब ऐसा करूँगा कि जिससे मुझे उभयविध सम्पत्ति प्राप्त हो।

उसने भगवान को नमन किया और कहा- कृपया कल का भोजनदान स्वीकार कीजिये।

भगवान ने पूछा- उपासक! कितने भिक्खुओं को भोजन कराना चाहते हो?

श्रद्धालु उपासक ने कहा- भगवान, आप सहित पूरे संघ को।

भगवान ने मौन रह कर स्वीकृति दी।

भगवान की स्वीकृति मिलते ही वह उपासक गांव में जाकर सबसे कहने लगा- बहनों, भाइयों! कल मैंने बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ को भोजनदान के निमन्त्रित किया है। आप जितने भिक्खुओं को दान देने में समर्थ हों उतनों को दान दें। 

यह कहकर गांव में घूमता हुआ वह सब लोगों से दान की स्वीकृति लेने लगा। तब अपनी-अपनी स्वसामर्थ्यानुसार किसी ने दस का, किसी ने बीस का, किसी ने सौ का, किसी ने पांच सौ भिक्खुओं का भोजनदान स्वीकार कर लिया। ऐसा सुनकर उसने सब भोजनदाताओं के नाम क्रमश: एक दानप्रपत्र पर लिख लिये।

उस समय उस नगर में एक अत्यन्त निर्धन रहता था। सब का नाम लिख रहा वह श्रद्धालु व उत्साही उपासक उस निर्धन के पास भी गया। उसके पास भी जाकर बोला- सौम्य! कल मैंने बुद्धप्रमुख भिक्खुसंघ को भोजनदान के लिए निमन्त्रित किया है। कल सभी नगरवासी यथाशक्ति भोजनदान देंगे। तुम कितने भिक्खुओं को भोजन कराओगे? 

वह बोला- स्वामि! मुझे भिक्खुओं से क्या प्रयोजन। भिक्खुओं का प्रयोजन तो धनवानों से होता है। मेरे पास तो स्वयं कल के लिये न यवागू है, न मुट्ठी भर चावल तक है। मैं तो स्वयं मेहनत-मजदूरी करके  जीवनयापन करता हूँ। मैं भिक्खुओं का क्या करूँगा।

दान के लिए प्रेरककर्ता को धैर्यवान और बुद्धिमान भी होना चाहिए। दाता द्वार 'नहीं' कह दिये जाने पर भी चुप न रहना चाहिये। यह सोच कर उस उत्साही, श्रद्धालु उपासक ने उस निर्धन अकिंचन से कहा- सौम्य! अच्छा भोजन कर, अच्छे वस्त्र पहन कर, नाना अलङ्कारों से स्वयं को भूषित कर बहुत से लोग महँगे पलंगों पर सोते हुए अपनी सम्पत्ति का उपभोग करते हैं, परन्तु एक तू है कि दिन भर मेहनत-मजदूरी करके पेट भरने के लिये आवश्यकता भर चावल तक भी जुटा नहीं पाता! क्या तू यह नहीं जानता कि पहले भी कभी तूने कोई पुण्य कर्म नहीं किया होगा, तभी तो आज तेरी यह दुर्गति है?

बड़े दीन स्वर में उस अकिंचन ने कहा- जानता हूँ, स्वामि! 

वह प्रोत्साहक प्रेरित करते हुए बोला- तो सौम्य, अवसर मिलने पर भी फिर तुम अब पुण्य क्यों नहीं कर रहे हो? तू तो युवक है, बलवान है, क्या तेरे पास दिन भर मजदूरी करके इतना धन भी नहीं जुट सकता कि यथाशक्ति एक भिक्खु को ही भोजन करा सके?

प्रोत्साहक की प्रेरणा से उस निर्धन अकिंचन के मन में भी धम्म संवेग जाग पड़ा। उसने बड़ी व्याकुलता से कहा- कल एक भिक्खु को भोजनदान के लिए मेरा नाम भी लिख लो।

प्रोत्साहक उपासक के साथ संगठन का जो दूसरा साथी था, जो सबके नाम लिख रहा था, उसने मन में उपेक्षापूर्वक सोचा- एक भिक्खु के लिए निर्धन का नाम क्या लिखना, किसी एक को भेज देंगे। यूँ दानपात्र में वह उसका नाम लिखे बिना ही आगे बढ़ गया।

वह निर्धन अकिंचन बड़े उत्साह से घर पहुँच कर अपनी भार्या से बोला- भद्रे! नगरवासी कल बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ को भोजनदान देंगे। एक प्रोत्साहक द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर मैं भी उसे वचन दे चुका हूँ कि हम भी कल अपने घर पर एक भिक्खु को भोजनदान देंगे। 

तब उसकी भार्या ने यह न कहकर कि 'हम तो स्वयं दरिद्र हैं, हम दूसरों को क्या भोजन देंगे, तुमने यह कैसे स्वीकार कर लिया', बल्कि यह कहा- स्वामि! आपने बहुत उचित किया। हमने पहले कभी किसी को कुछ न दिया होगा, उसी का फल आज इस दरिद्रता से भोग रहे हैं। अतः हम दोनों ही कोई काम ढूढ़ कर इतना धन तो जुटा लेंगे कि एक भिक्खु को भोजनदान दे सकें।

यों कह कर वे दोनों ही घर से काम की तलाश निकल लिए। देखा पूरे नगर में हर घर के सामने बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ के लिए कल के भोजनदान की तैयारी चल रही है।

ऐसे ही तैयारी में लगे एक सेठ ने अकिंचन व उसकी पत्नी को देख कर आवाज दी- क्यों रे, कुछ काम करेगा?
"अवश्य, स्वामि!", पति-पत्नी दोनों ने उत्साह से कहा। 
"क्या कर सकता है?" 
"जो आप कहेंगे, स्वामी!" 
"तो सुनो! कल मैंने दो-तीन सौ भिक्खुओं को भोजनदान का निमन्त्रण दे रखा है, उनके भोजन बनाने के लिये कुछ लकड़ियाँ फाड़ दो।" 

यों कहते हुए उसको बसूला एवं कुल्हाड़ा थमा दिया। उस अकिंचन ने कमर कस कर, उत्साहसम्पन्न होकर बसूले, कुल्हाड़े से लकड़ियाँ फाड़ना शुरू कर किया। उसको इतना उत्साहित देख कर सेठ ने पूछा- सौम्य, आज तो तुम बहुत उत्साह से काम कर रहे हो, क्या कारण है?
"स्वामि! कल मुझे भी एक भिक्खु को भोजन कराना है।", अकिंचन ने कहा। 

यह सुनकर सेठ ने प्रसन्नमन होकर विचारा- अरे! इसने तो बड़ा कठोर व्रत ले लिया है। 'मैं स्वयं दरिद्र हूँ'- यह न मान कर यह एक भिक्खु को भोजन कराने जा रहा है।" 

अकिंचन की भार्या को सेठानी ने काम सौंप दिया- ऊखल देकर कहा कि कल भिक्खुओं के भोजनदान के लिए धान से चावल निकाल दे!

गाते-गुनगुनाते बड़े उत्साह से अकिंचन भार्या धान कूटने लगी।
सेठानी ने हैरानी से पूछा- आज तो तू बहुत उत्साह में है! क्या कारण है? 
अकिंचन भार्या बोली- कल हमने भी एक भिक्खु को भोजनदान के लिए आमंत्रित किया है।
सेठानी बड़ी प्रसन्न हुई, कहने लगी- तूने तो बड़ा महान संकल्प ले लिया है।

उस जमाने में मु़द्रा विनिमय नहीं था, वस्तु विनिमय होता था। वस्तुओं के आदान-प्रदान से लोक व्यवहार चलता था।

शाम को सेठ-सेठानी दोनों ने अकिंचन व उसकी भार्या को निर्धारित से भी अधिक मेहनताना दिया- तेल, घी, शहद, चावल, दूध, खाण्ड, मसाले आदि इतनी मात्रा में दे दिया कि दो नहीं वरन नौ लोगों के लिए पर्याप्त हो सके।

अकिंचन व उसकी भार्या अत्यन्त प्रसन्न हो गये कि न केवल एक भिक्खु के भोजनदान भर के लिए बल्कि उससे भी अधिक सामग्री मिल गयी है। दोनों अगली सुबह की तैयारी में लग गये।

सुबह भिक्खु के भोजनदान की तैयारी में लगी अकिंचन की भार्या ने अपने पति से कहा- भोजन परोसने के लिए पत्तल ले आओ।

अंकिचन उत्साह से नदी किनारे जाकर गाते-गुनगुनाते हुए पेड़ों से पत्ते तोड़ने लगा। उसके उत्साहित कण्ठ का मुदित स्वर सुन कर तट पर बैठे मल्लाह ने पूछा- बात क्या है? आज बड़े खुश लग रहे हो।

अकिंचन ने बड़े मुदित स्वर में कहा- आज हम दम्पत्ति एक भिक्खु को भोजनदान देंगे।

मल्लाह ने कहा- कुछ मेरा भी काम कर दो, हम भी तुम्हें कुछ दे देंगे।

"काम क्या है?"

मेरी नाव से यात्रियों को नदी पार कराओ, मैं घर कार्य से लौट कर आता हूँ।

अकिंचन ने खुशी-खुशी वह सेवा शीघ्रता से सम्पादित कर दी। मल्लाह ने भी आमदनी में से अकिंचन को अंश दिया। वह पत्तल लेकर घर की तरफ भागा।

अपनी गन्धकुटी में बैठे हुए भगवान काश्यप बुद्ध ने अपने दिव्य चक्षुओं से लोकावलोकन किया तो अकिंचन दम्पत्ति की श्रद्धा देख कर मुदित हुए। भगवान को मुदित देख कर एक देव सत्ता अकिंचन भार्या के घर पहुँच कर मजदूर वेश में रसोइया बन कर बिना मूल्य के अपनी सेवा देने को तत्पर हो गया। खाना बनाने में मदद करने लगा ताकि भोजन समय तैयार हो जाए।

भोजन तैयार हो जाने पर भार्या ने बड़े मुदित मन से अपने पति से कहा- जाओ, एक भन्ते को ले आओ।

पति-पत्नी के जीवन में यह पहला अवसर था कि जब वे किसी को भोजन कराने के लिए इतना श्रम कर रहे थे, अन्यथा तो जीवन भर बस अपने ही भरण-पोषण के लिए मशक्कत करते रहते थे।

पत्नी के संकेत पर अकिंचन तेज पगों से वह प्रोत्साहक के पास पहुँचा जिसने उसे एक भिक्खु को भोजनदान के लिए प्रेरित किया था। प्रोत्साहक ने सूची देखी तो सभी भिक्खु यथाघर भोजनदान के लिए जा चुके थे। अकिंचन के घर भेजने के लिए एक भी भिक्खु बचा  नहीं था। सच तो यह था कि अकिंचन का नाम दानपात्र में लिखा ही नहीं था, इसलिए यह भूल हो गयी।

जैसे ही दान प्रोत्साहक ने यह कहा- तुम्हारे घर भेजने के लिए कोई भिक्खु नहीं बचा है, सब भोजनदान के लिए यथाघर जा चुके हैं, अब किसी के घर से भिक्खु वापस तो बुलाउंगा नहीं।

इतना सुनते ही अकिंचन को ऐसा लगा जैसे उसके सीने में किसी ने भाला भोंक दिया । वह अकिंचन प्रोत्साहक की बाँह पकड़ कर रोने लगा- मैं हूँ ही अभागा! मेरा अनर्थ हो गया। तुमने ही मुझे प्रेरित किया और तुमने ही धोखा दे दिया, अब मैं कहाँ जाऊँ, किसको बुलाऊँ? मैं नष्ट हो गया।

अकिंचन को रोता हुआ देख कर भीड़ इकट्ठा हो गयी। पूरा प्रसंग सुना तो सब प्रोत्साहक की ही निन्दा करने लगे- तुम्हारा इतना पुण्य व्यर्थ गया, एक निर्धन को वादा करके नहीं निभाया, इतना बड़ा पाप, किसी एक भिक्खु की व्यवस्था तो इस अकिंचन के  लिए करो।

वह अकिंचन की आंसुओं की धार थी कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी और सब लोग प्रोत्साहक को निन्दित कर रहे थे। प्रोत्साहक स्वयं बड़ी ग्लानि से भर गया। उसे अपनी त्रुटि सुधार का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। कहने लगा कि अब किसी के घर से एक भिक्खु वापस बुलाउंगा तो और निन्दा होगी। वह अकिंचन से कहने लगा- सौम्य! मुझे माफ करो।

इतना सुनते ही वह अकिंचन और फूट-फूट कर रोने लगा- अपनी पत्नी को जाकर क्या बताऊ? वह भोजन बना कर एक भिक्खु का इंतजार कर रही हैं।

अकिंचन का विलाप सुन कर हताश प्रोत्साहक ने कहा- एक उपाय है। अभी भगवान अपनी गन्धकुटी में हैं, वह किसके घर जाएंगे, वह ही जानते हैं। कुटी के द्वार पर राजा, राजकुमार, सेनापति, आमात्य खड़े है, तुम भी जाकर खड़े हो जाओ, वह जिसके हाथ में अपना पात्र दे देंगे, उसके ही घर जाएंगे, उसके ही घर भोजन करेंगे। भगवान तो अकिंचनों के प्रति अहेतुक कृपालु होते हैं, तुम्हारा पुण्य होगा वह तुम्हारे घर भी जा सकते हैं।

साथ खड़े लोगों ने भी अनुमोदन किया- दान प्रोत्साहक ठीक कह रहे हैं।

वह अकिंचन भागता हुआ भगवान की कुटी पर पहुँचा। कुटी के द्वार पर खड़े राजा, राजकुमार, सेनापति, आमात्य उसे रोकने लगे- अभी भोजन हो नहीं गया है जो मांगने चले आए, हटो यहाँ से।

वह प्रोत्साहक भी मन ही मन प्रार्थना करने लगा- भगवान, आप ही आखरी उम्मीद हैं, मेरी त्रुटि आप ही सुधार सकते हैं, वरना आज मुझे बड़ा पाप लगेेगा, लोक निन्दा हो रही है।

गन्धकुटी के बाहर खड़े राजा, राजकुमार, सेनापति, आमात्यों के द्वारा रोके जाने पर अकिंचन ने दीन स्वर में कहा- मुझे बस भगवान की कुटी की दहलीज पर माथा टेकना है।

लोगों ने उसे आगे बढ़ने दिया। गन्धकुटी के द्वार पर माथा रख कर वह रोने लगा- भगवान, आपकी कृपा हो जाए, मैं तो जन्म से ही अभागा हूँ, आज एक पुण्य करने का अवसर मिला, वह भी हाथ से निकला जा रहा है, अपनी भार्या को जाकर क्या मुँह दिखाउंगा। कृपा करके आप ही मेरे आश्रय बनिये, इस नगर में मुझसे ज्यादा दीन कोई नहीं है।

वह दहलीज पर माथा रखे रो ही रहा था कि भगवान ने गन्ध कुटी खोली। कुटी का द्वार खुलते ही भगवान का दर्शन करते ही वह भावविव्हल हो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और आँखों से आंसुओं की धार बहे जा रही है। सारे राजा, राजकुमार, सेनापति, आमात्य हाथ जोड़ कर त्वरित पगों से आगे बढ़े। भगवान आगे बढ़े और हाथ बढ़ा कर अपना पात्र अकिंचन के हाथ में रख दिया।

उस पल अकिंचन को लगा जैसे उसे वह चक्रवर्ती सम्राट हो गया है, सब लोकों का साम्राज्य पा गया है। सारे राजा, राजकुमार, सेनापति, आमात्य ताकते रह गये। आपस में एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। कई का मन तो किया कि अकिंचन के हाथ से पात्र ही छीन लें, लेकिन भगवान के सामने किसका साहस! कुछ ने आगे बढ़ कर अकिंचन से निवेदन करना ही बेहतर समझा- यह पात्र आज मुझे दे दो, जितना धन चाहे मांग लो।

अकिंचन ने कहा- अपना राज्य भी दे दीजिये तो भी यह पात्र आज किसी को नहीं दूँगा।

अकिंचन आगे-आगे, भगवान पीछे-पीछे उसके घर की ओर बढ़ते हुए और पीछे सारे राजा, राजकुमार, सेनापति, आमात्यगण।

सब अपने को समझाने लगे- निर्धन के प्रति सहानुभूति के कारण भगवान ने उसे पात्र दे दिया है, उसके यहाँ कुछ औपचारिकतावश खाएंगे, फिर व्यंजन तो हम ही खिलाएंगे। इसी विचार में वे पीछे-पीछे चलने लगे और साथ में यह उत्सुकता भी कि देखें अकिंचन क्या खिलाता है।

अकिंचन की झोपड़ी के निकट पहुँचते ही व्यंजनों की सुगन्धि हवा में तैर रही थी। आखिर देवराज शक्र स्वयं रसोइया बने भोजन पका रहे थे। वो व्यंजनों की गुणवत्ता तथा सुगन्धि देख कर सारे राजा, राजकुमार, सेनापति, आमात्यगण चुपचाप वापस हो लिए।

भगवान ने तृप्तिभर भोजन किया। तदोपरान्त श्रद्धालु दम्पत्ति को अनुमोदन देशना दी। श्रद्धालु दम्पत्ति का रोम-रोम प्रीति की तरंगों से पुलकित हो उठा। दम्पत्ति ने भगवान का पात्र धोया और भगवान को गन्धकुटी तक पहुँचा कर आया। भगवान के चले जाने के बाद शक्र देव ने सारे बर्तन स्वयं साफ किये और विदा होने से पहले सारे बर्तनों में, घर के कोने-कोने में स्वर्ण मुद्राएं व सप्तविध रत्न भर दिये।

अकिंचन लौट कर आया तो अपने बच्चों व भार्या को घर के बाहर खड़े पाया। कारण पूछने पर मालूम हुआ कि पूरा घर सप्तविध रत्नों से भर गया है। वह विपुल सम्पत्ति देख कर हैरान रह गया। सोचने लगा कि बुद्ध को दिये दान का फल इतनी जल्दी मिलता है। लेकिन उसके मन में लोभ नहीं आया। 

उसने तत्काल राजा को सूचित किया, क्योंकि उस समय का ऐसा विधान था कि अज्ञात स्रोत से मिली सम्पत्ति पर राजा का अधिकार होता था। राजा बड़ा हैरान हुआ कि बुद्ध को भोजनदान कराने का फल इतनी जल्दी मिलता है। उसने अपने मन्त्रिगणों से पूछा- जिसके पास इतनी सम्पत्ति हो, उसका कैसे सत्कार करना चाहिये?

सब ने एक स्वर से कहा- ऐसी अपार सम्पत्ति वाले को नगरसेठ के पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिये।

राजा ने वैसा ही किया, उस अकिंचन को समारोहपूर्वक नगर सेठ के पद पर आसीन कर दिया और एक भूखण्ड उसका आवास निर्मित करने के लिए दे दिया। आवास निर्माण के समय खुदाई में भूमि के अन्दर दबे हुए स्वर्ण मुहरों के मटके मिले।

नवप्रतिष्ठित नगर सेठ ने पुन: राजा को सूचित किया कि यह सम्पत्ति आपकी प्रदान की भूमि से निकली है, अतः आपकी है। राजा ने कहा- यह भूमि आपको दी जा चुकी है, अत: आपकी है।

देखते ही देखते अकिंचन का कायाकल्प हो गया। नगर सेठ के पद पर प्रतिष्ठित हो कर उसने आजीवन संघ के लिए महादान किया, अपार पुण्य अर्जित किया।

चार स्थितियों में दान का फल तत्काल मिलता है:

1. शील, समाधि, प्रज्ञा सम्पन्न व्यक्ति या व्यक्तियों का संघ अथवा इस मार्ग पर लगे हुए लोगों का संघ मिले।
2. ऐसा सुअवसर मिले तो दान देने के लिए ईमानदारी से अर्जित धन, अन्न, सामग्री हो।
3. दान करने से पहले, दान करने के दौरान, दान करने के उपरान्त मन में क्लेश की लहर भी न उठे कि बहुत अधिक खर्च हो गया।
4. किया गया दान जिसको दिया है उसके लिए हितकारी, सुखकारी हो।

ये चार स्थितियाँ एक समय में एक साथ घटित होने पर दान का फल तत्काल मिलता है।

दस पारमिताओं में दान प्रथम पारमिता है। 

मज्झिम निकाय, दक्खिनाविभङ्ग सुत्त में भगवान बुद्ध के वचन हैं:

"संघ को दिया दान बुद्ध को दिये दान से भी अधिक पुण्यकारक है। संघ को दान देने से संघ पूजित होता है, उसमें बुद्ध भी पूजित होते हैं, क्यों समस्त दान बुद्ध के निमित्त ही दिया जाता है।"

संघ का सत्कार करना बुद्ध का सत्कार करना है। विनयबद्ध संघ को नमन करना बुद्ध को नमन करना है। संघ ही बुद्ध का साकार रूप है।

नमो बुद्धाय🙏🙏डीकेपंडित

मिडिया हेड डब्लू बी एम (जापान)

 बोधगया गया बिहार भारत
03.10.2023